Bihar
oi-Pallavi Kumari
Bihar
Election
2025:
बिहार
की
राजनीति
जाति
और
समीकरणों
के
बिना
अधूरी
है।
हर
चुनाव
से
पहले
यह
सवाल
जरूर
उठता
है
कि
किस
नेता
की
जाति
क्या
है
और
उससे
जुड़े
समाज
का
राजनीतिक
असर
कितना
बड़ा
है।
इस
बार
वनइंडिया
हिंदी
की
खास
सीरीज
“जाति
की
पाति”
में
बात
होगी
बिहार
के
सबसे
लंबे
समय
तक
सत्ता
में
रहने
वाले
मुख्यमंत्री
नीतीश
कुमार
की।
नीतीश
कुमार
कौन-सी
जाति
से
आते
हैं,
उस
जाति
की
बिहार
की
राजनीति
में
कितनी
अहमियत
है
और
आखिर
क्यों
नीतीश
खुद
चुनावी
मैदान
में
नहीं
उतरते?
आइए
जानते
हैं
विस्तार
से।

Nitish
Kumar
Caste:
क्या
है
नीतीश
कुमार
की
जाति?
नीतीश
कुमार
का
ताल्लुक
कुर्मी
जाति
से
है।
बिहार
में
यह
जाति
भले
ही
संख्या
के
लिहाज
से
बड़ी
न
हो,
लेकिन
सामाजिक-राजनीतिक
तौर
पर
इसका
प्रभाव
काफी
गहरा
है।
सरकारी
जातीय
सर्वे
के
मुताबिक,
राज्य
में
करीब
2.87%
लोग
कुर्मी
समाज
से
हैं,
यानी
लगभग
40
लाख
की
आबादी।
हालांकि
विशेषज्ञ
मानते
हैं
कि
अगर
कुर्मी
समाज
की
सभी
उपजातियों
को
मिला
दिया
जाए
तो
यह
आंकड़ा
22-24%
आबादी
तक
पहुंच
जाता
है।
कुर्मी
समाज
की
कुछ
प्रमुख
उपजातियां
हैं
-अवधिया,
समसवार
और
जसवार।
इनकी
मजबूत
पकड़
न
सिर्फ
ग्रामीण
इलाकों
में
बल्कि
नौकरशाही,
शिक्षा
और
स्वास्थ्य
सेवाओं
में
भी
रही
है।
यही
वजह
है
कि
बिहार
की
राजनीति
में
कुर्मी
वोट
बैंक
हमेशा
अहम
माना
जाता
है
और
नीतीश
कुमार
इस
वोट
बैंक
पर
सीधी
पकड़
रखते
हैं।
बिहार
चुनाव
में
कुर्मी
समाज
का
असर
बिहार
विधानसभा
की
कुल
243
सीटों
में
से
करीब
10-12
सीटें
सीधे
तौर
पर
कुर्मी
समाज
तय
करता
है।
अगर
इनकी
उपजातियों
को
शामिल
कर
लिया
जाए
तो
यह
आंकड़ा
70
सीटों
तक
पहुंच
जाता
है।
यानी
लगभग
हर
चौथे
विधानसभा
क्षेत्र
में
कुर्मी
वोट
निर्णायक
साबित
हो
सकते
हैं।
यही
कारण
है
कि
नीतीश
कुमार
हमेशा
इस
समाज
के
प्राकृतिक
नेता
माने
जाते
हैं।
बीजेपी
को
जहां
सवर्ण
और
वैश्य
वोटरों
का
समर्थन
मिलता
है,
वहीं
जेडीयू
नीतीश
की
अगुवाई
में
अति
पिछड़ा
वर्ग
और
महिला
वोटरों
की
बड़ी
ताकत
अपने
साथ
जोड़
लेता
है।
यही
कॉम्बिनेशन
पिछले
दो
दशकों
से
बिहार
की
राजनीति
में
नीतीश
की
पकड़
बनाए
हुए
है।

नीतीश
कुमार:
राजनीति
में
शुरुआती
सफर
और
संघर्ष
(Nitish
Kumar
Political
career)
नीतीश
कुमार
ने
राजनीति
की
शुरुआत
1970
के
दशक
में
जेपी
आंदोलन
से
की
थी।
वह
इंजीनियरिंग
की
पढ़ाई
पूरी
करने
के
बाद
सक्रिय
राजनीति
में
आए।
जनता
पार्टी
से
करियर
शुरू
हुआ,
लेकिन
शुरुआती
दो
चुनावों
में
उन्हें
हार
का
सामना
करना
पड़ा।
1985
में
नीतीश
पहली
बार
हरनौत
विधानसभा
सीट
से
विधायक
बने।
इसके
बाद
1989
में
लोकसभा
पहुंचे
और
राष्ट्रीय
राजनीति
में
पहचान
बनाई।
केंद्र
सरकार
में
रेल
मंत्री
जैसे
अहम
पद
संभाले,
लेकिन
1990
के
दशक
के
अंत
तक
वह
समझ
चुके
थे
कि
असली
लड़ाई
बिहार
में
है।
2000
में
नीतीश
पहली
बार
मुख्यमंत्री
बने,
हालांकि
महज
7
दिन
में
उन्हें
इस्तीफा
देना
पड़ा।
2005
में
जब
जेडीयू-बीजेपी
गठबंधन
ने
सत्ता
संभाली
तो
नीतीश
ने
सूबे
की
राजनीति
की
दिशा
ही
बदल
दी।

बार-बार
सीएम,
लेकिन
नीतीश
कुमार
क्यों
नहीं
लड़ते
चुनाव?
यह
सवाल
हर
बार
उठता
है
कि
नीतीश
कुमार
जब
इतने
लोकप्रिय
नेता
हैं,
तो
वे
विधानसभा
चुनाव
क्यों
नहीं
लड़ते?
इसका
जवाब
2004
की
हार
में
छिपा
है।
दरअसल,
1989
से
1999
तक
नीतीश
लगातार
बाढ़
लोकसभा
सीट
से
चुनाव
जीतते
रहे
थे।
लेकिन
2004
में
उन्हें
खतरा
महसूस
हुआ
कि
इस
बार
हार
सकते
हैं।
इसलिए
उन्होंने
बाढ़
के
साथ-साथ
अपनी
कर्मभूमि
नालंदा
सीट
से
भी
चुनाव
लड़ा।
नतीजा
वही
हुआ
जिसका
डर
था
–
नीतीश
बाढ़
से
हार
गए।
इस
हार
ने
उन्हें
गहरा
झटका
दिया।
तब
से
उन्होंने
खुद
विधानसभा
चुनाव
लड़ने
से
दूरी
बना
ली।
जब
2005
में
वे
सीएम
बने,
तो
नालंदा
से
सांसद
का
पद
छोड़कर
विधान
परिषद
के
रास्ते
मुख्यमंत्री
बने
और
तब
से
लगातार
वही
रास्ता
अपनाते
आ
रहे
हैं।
सत्ता
में
बने
रहने
का
फार्मूला
नीतीश
कुमार
को
लोग
‘सुशासन
बाबू’
कहकर
बुलाते
हैं।
20
साल
से
ज्यादा
समय
तक
सत्ता
में
बने
रहना
अपने
आप
में
बड़ी
उपलब्धि
है।
बीच
में
2014
में
जीतनराम
मांझी
को
मुख्यमंत्री
बनाकर
उन्होंने
278
दिनों
के
लिए
सत्ता
छोड़ी
थी,
लेकिन
असली
नियंत्रण
उनके
हाथों
में
ही
रहा।
उनका
फार्मूला
साफ
है
–
जातीय
समीकरण
और
विकास
की
छवि।
कुर्मी
समाज
का
ठोस
समर्थन,
बीजेपी
के
सवर्ण
और
वैश्य
वोटरों
की
ताकत,
जेडीयू
का
अति
पिछड़ा
और
महिला
वोट
बैंक
–
इन
सबका
संतुलन
उन्हें
बार-बार
मुख्यमंत्री
की
कुर्सी
तक
ले
आता
है।
बिहार
चुनाव
2025
के
मद्देनजर
नीतीश
कुमार
का
जातीय
समीकरण
फिर
चर्चा
में
है।
भले
ही
उनकी
जाति
की
जनसंख्या
सिर्फ
2-3%
मानी
जाए,
लेकिन
उपजातियों
को
मिलाकर
यह
आंकड़ा
इतना
बड़ा
हो
जाता
है
कि
बिहार
की
70
सीटों
का
खेल
बदल
देता
है।
यही
वजह
है
कि
नीतीश
आज
भी
राजनीति
के
सबसे
बड़े
खिलाड़ी
बने
हुए
हैं।
और
जहां
तक
सवाल
है
चुनाव
न
लड़ने
का
-तो
2004
की
हार
ने
उन्हें
यह
सबक
सिखा
दिया
कि
मुख्यमंत्री
की
कुर्सी
तक
पहुंचने
के
लिए
खुद
चुनाव
मैदान
में
उतरना
जरूरी
नहीं,
बल्कि
जातीय
और
राजनीतिक
समीकरण
साध
लेना
ही
असली
चाबी
है।
